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Monday 18 February 2013

स्वामी हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था

अंतर्गत लेख:





श्री हरिदास जी का कंठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी। उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बड़ा आनंद मिलता था। वे जब कोई भजन गाते थे या कोई रागिनी छेड़ते थे, तब गांव भर के स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे अपना काम छोड़कर वहां पहुंच जाते और उनके मंत्र-मुग्धकारी राग को सुनकर आनंद-रस में निमग्न हो जाते धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक फैल गई। हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था।

श्री बांके बिहारी जी महाराज को वृंदावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म भगवान श्रीकृष्ण के कुलगुरु गर्गाचार्यके वंश में, विक्रम संवत 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्रीराधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगा देवी के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात अलीगढ़ जनपद की कोल तहसील में व्रज की कोर पर आकर एक गांव में बस गए। श्री हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। वे बचपन से ही एकांत-प्रिय थे।
उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बड़ा आनंद मिलता था। वे जब कोई भजन गाते थे या कोई रागिनी छेड़ते थे, तब गांव भर के स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे अपना काम छोड़कर वहां पहुंच जाते और उनके मंत्र-मुग्धकारी राग को सुनकर आनंद-रस में निमग्न हो जाते। श्री हरिदास जी का कंठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक फैल गई। उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया।

हरिदास जी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरांत वैष्णवी दीक्षा प्रदान की। युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी और सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदास जी की आसक्तितो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदास के चरणों में लीन हो गया। समाज ने अनुमान लगाया कि हरिमति के हाथों में पहनी हुई लाख की चूड़ियों में दीपक की लौ छू जाने से यह घटना घटी।

विक्रम सम्वत 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में श्री हरिदास वृंदावन  पहुंचे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। स्वामीजी के वृंदावन पहुंचते ही श्रीधाम का दिव्य स्वरूप प्रकट हो गया। हरिदास जी निधि वन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान और उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी के स्तवन से संतुष्ट होकर प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांके बिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित हुई।
हरिदास जी के ये लाडले ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं

वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा-स्वरूपाललिता का अवतार मानते हैं। श्रीमती राधारानी की प्रतिबिंब-रूपा होने से ललिता को निकुंज-लीला की सभी सखियों-सहचारियों में प्रधान माना गया है। निकुंज में नित्य लीलारतप्रिया-प्रियतम की सेवा में ललिता सदैव तत्पर रहती हैं। राधारानी के ललिता-स्वरूप में अवतरित होने के प्रसंग को बैनी-गूंथन नामक निकुंज-लीला के रूप में राधाष्टमी के दिन प्रस्तुत किया जाता है। श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं।

 इसी कारण ललितावतारस्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे, लेकिन उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, न कि किसी राजा-महाराजा के लिए। बैजू बावरा जैसे अमर गायक और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामीजी के ही शिष्य थे। मुगल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृंदावन आया था। विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंज वास निधि वन में हुआ।

स्वामी जी के आराध्य द्वापर युग में प्रकट देवकी नंदन श्रीकृष्ण न होकर नित्य निकुंज लीला में रत श्यामा-कुंज बिहारी हैं। उन्होंने अनन्य रसिक सखी भाव से निकुंजोपासनाकी। हरिदासजी के आराध्य श्यामा-श्याम नित्य हैं, वे अवतार नहीं अवतारी हैं, आनंद-स्वरूप हैं, जो रस-भूमि वृंदावन के सघन निकुंजों के मध्य विहार करते हुए नित्य नवीन लीलारत हैं। स्वामी जी ने एक नवीन पंथ सखी-संप्रदाय का प्रवर्तन किया। उनके की ओर से निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंज बिहारी की उपासना-सेवा की अभिनव पद्धति विकसित हुई, जो कि बड़ी विलक्षण है।
निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंज विहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।

स्वामी हरिदास के मत से इच्छा द्वैत उपासना सर्वोत्तम है। नित्य तत्व के नित्य निरन्तर विलास को ही नित्य-विहार कहते हैं। साधकों का मानना है कि नित्य-विहार रस की कुंजी स्वामी हरिदास के अधिकार में है, अत: निकुंजोपासना में प्रवेश के लिए इनकी अनुमति और अनुकंपा आवश्यक है।

राधाष्टमी के पावन पर्व में स्वामी हरिदासका पाटोत्सव (जन्मोत्सव) वृंदावन में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। सायं काल मंदिर से चाव की सवारी निधिवन में स्थित उनकी समाधि पर जाती है। ऐसा माना जाता है कि ललितावतार स्वामी हरिदास की जयंती पर उनके लाडले ठाकुर बिहारीजी महाराज उन्हें बधाई देने श्री निधिवनराज पधारते हैं।



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