बीमारी का बगैर दवाई भी इलाज़ है,मगर मौत का कोई इलाज़ नहीं दुनियावी हिसाब किताब है कोई दावा ए खुदाई नहीं लाल किताब है ज्योतिष निराली जो किस्मत सोई को जगा देती है फरमान दे के पक्का आखरी दो लफ्ज़ में जेहमत हटा देती है

Tuesday 12 February 2013

गंगोलीहाट महाकाली दरबार अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुये है

अंतर्गत लेख:




उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। गंगोलीहाट जनपद मुख्यालय से लगभग ९९ किमी० की दूरी पर मन को लुभाने वाली नगरी गंगोलीहाट है। गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के मध्य यहां से लगभग १ किमी० दूरी पर अत्यन्त ही प्राचीन माँ भगवती महाकाली का अद्भुत मंदिर को चाहे धार्मिक दृष्टि से देखें या पौराणिक दृष्टि से हर स्थिति में यह आगन्तुकों का मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है। पवित्र पहाडों की गोद में बसा हरे भरे वृक्षों के मध्य स्थित यह मंदिर भक्तजनों के लिये जगत माता की ओर से अनुपम भेंट है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्वापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के पुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाओं का हरण हो जाता है व अतुल ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। भक्तजन बताते हैं यहां श्रद्वा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महात्म्य है। इसलिये वर्ष भर यहां बडी संख्या में श्रद्वालु पहुंचते हैं तथा बडे ही भक्ति भाव से बताते हैं कि किस प्रकार माता महाकालिका ने उनकी मनौती पूर्ण की देशी विदेशी पर्यटक इस क्षेत्र में आकर माँ काली के दर्शन करते है
 महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना तथा माँ के प्रति अपनी आस्था पुंज बिखेरते हुये उत्तराखण्ड क्षेत्र में अनेक धर्म स्थलों पर श्रद्वा के पुष्प अर्पित किये जिनके प्रतीत चिन्ह आज भी जागेश्वर के मृत्युंजय महादेव मंदिर, पाताल भुवनेश्वर की रौद्र शक्ति पर व कालिका मंदिर के अलावा अन्य कई पौराणिक मंदिरों एवं गुफाओं में देखे जा सकते है , उत्तराखण्ड के  कवि लोकरत्न गुमानी ने भी महाकालिका मंदिर के प्रति अपनी कविताओं को समर्पित  करते हुये माँ भगवती को सुंदरता व शालीनता की मूर्ति माना है। अपने ’कालिकाष्टक में पंडित गुमानी ने यह भी कहा है कि यह विशेष परिस्थितियों में गंभीर व भयानक रूप धरण करती है। श्री महाकाली का यह मंदिर उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का प्रतीक है।
प्रातःकाल मंदिर में जब महाकाली की गूंज, शंख, रूदन और नगाडों की रहस्यमयी आवाजें निकलती हैं, तत्पश्चात यहां पर भक्तजनों का ताता लगना शुरू होता है। सायंकालीन आरती का दृश्य भी अत्यधिक मन मोहक रहता है। जिसे देखकर ऐसा मालूक पडता है।मानो घरती पर र्स्वग उतर आया हो
सुंदरता से भरपूर इस मंदिर के एक ओर हरा भरा देवदार का आच्छादित घना जंगल है। तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की हरियाली भरी घाटियां विशेष रूप से नवरात्रियों व चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों का  यहां पर विशाल ताता लगा रहता है। इन पर्वों को उत्तराखण्ड सहित देश के अनेक भागों के भक्तजन यहां महाकाली के दर्शनार्थ आते हैं, ये ही ऐसे पर्व हैं जब क्षेत्र के प्रत्येक गांव से कामकाजी महिलाओं को अपने नन्हें-मुन्नें बच्चों के साथ गंगोलीहाट बाजार जिन्हें ग्रामीण महिलायें ’हाट कौतिक के नाम से पुकारती हैं, आने का मौका मिलता है और वे सर्वप्रथम कालिका के दरबार में माथा टेककर चरणामृत लेकर, बाजार परिसर व हाट से खरीददारी करती हैं। मंदिर परिसर में भजन-कीर्तन व भण्डारा के लिये हाल बने हुये हैं।
आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धरण कर देवदार के वृक्ष में चढकर जागनाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पडती थी वह व्यक्ति सीधे प्रातः तक यमलोक पहुंच चुका होता था।
छठी शताब्दी में आदि जगत गुरू शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गये। लेकिन जब विश्राम के उपरान्त  शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की तो मंदिर शक्ति स्थल पर पहुंचने से ही कुछ दूर पूर्व तक ही स्थित प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे वे नहीं बढ पाये और अचेत होकर इस स्थान पर गिर पडे व कई दिनों तक यही पडे रहे उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अंहभाव व कटु वचन के लिये जगत गुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात माँ भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।
चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किये और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्राचार के द्वारा लोहे के सात बडे-बडे भदेलों से शक्ति को कीलनं कर प्रतिष्ठिापित किया। अष्टदल व कमल से मढवायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। पौराणिक काल में प्रचलित नरबली के स्थान पर पशु बली की प्रथा आज भी प्रचलित है।
चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चण्डी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबलि अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। ब्राह्मण समुदाय बलि प्रथा से दूर रहकर हवन पूजा में विश्वास रखता है। जब मंदिर में सतचण्डी महायज्ञ आयोजित होते हैं। तब कालिका दरबार की आभा देखने लायक होती है। १०८ ब्राह्मणों द्वारा प्रतिदिन शक्ति पाठ की गूंज से यूं मालूम पडता है। मानों समस्त देवता शैल पर्वत पर आकर रहने लगे हों। चातुरमास में आयोजित होने वाला तस्मै ;खीर भोग रावल उपजाति के वारीदारों द्वारा लगाया जाता है। इस अवसर पर मंदिर में अध्र्रात्रि में भी भोग लगाने की प्रथा है। यह भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है।इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं। जो क्रमवार से उपस्थिति देकर बारीदारी का हक निभाते हैं। मंदिर में पूजा अर्चना का कार्यक्रम सम्पन्न कराने के लिये अर्ग्रोन गांव के पंत लोग उपस्थित रहते हैं। उनकी अनुपस्थित में यह दायित्व हाट गांव के पाण्डेय निभाते हैं।
सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से पधारते हैं व मनोकामना पूर्ण पाते हैं।
इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बडी चमत्कारिक रही है। महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में से नागा पंत के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। वे रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिये मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे समस्या आन पडी मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी ध्नी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुये उन्होंने दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड की लकडी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पडा जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोडी ही खुदान के पश्चात संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला एवं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वतः ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है  इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तरासे हुए पत्थर मिले। कितना आलौकिक चमत्कार था यह माता काली का जिस चमत्कार ने सहजता के साथ इस समस्या का निदान करवा दिया। महान योगी जंगम बाबा ने एक सौ बीस वर्ष की आयु में शरीर का त्याग किया।
बीसवी सदी के चौथे दशक में गोविन्द दास नामक महासंत ने यहां कालिका की आराधना की आजादी से पूर्व यह दो नदियों के बीच का प्रदेश गंगावली मोटर यातायात से विहीन था। पैदल यात्रा से यात्री यहां की नैसर्गिक सौंदर्य का आनन्द लेते थे। शक्ति पीठ में सहत्रघट का जब कभी पूर्व में आयोजन होता था। तो सरयू व रामगंगा नदी से भक्तजन जयकारा साथ गागरों में पानी लाते थे। इसके अलावा नौलों,जल धारों से भी ताबें की गंगरियों में जल लाकर के शक्तिपीठ में जलाभिषेक किया जाता था। पूरे दिन चलने वाले इस कार्यक्रम में गंगावली की वादियों का नजारा दिव्य लोक सा मालूम पडता था। सहत्रघट आयोजन तब किया जाता था, जब लम्बे समय से वर्षा नहीं होती थी। दिन भर यह कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात सायंकाल के समय घनघोर मेद्य ललाट भरे बादल जो रौद्र रूप का प्रतिबिम्ब मालूम पडता था। अपने साथ वर्षा की अनुपम छटा लाता था। विज्ञान के युग में भी इस परम सत्य का नजारा सहत्रघट आयोजनों के अवसर पर यहां देखा जा सकता है।
एक अन्य चमत्कार के अनुसार विश्व युद्व के दौरान जब भारतीय सैनिकों से खचाखच भरा जहाज  समुद्र में डूबने लगा तो उसी जहाज में इस क्षेत्र के उपस्थित एक सैनिक ने माँ का स्मरण कर डूबते जहाज को इस तरह से उबरवाया कि समुद्र की वादियों व जहाज जय श्री महाकाली गंगोलीहाट वाली की जय-जयकार से गूंज उठा तभी से भारतीय सैनिकों की इस मन्दिर के प्रति विशेष आस्था है। ३८,९३७ हैक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रफल में फैलै विकास खण्ड गंगोलीहाट के आसपास शिवालयों एवं देवी शक्तिपीठों की भरमार है जिनमें चामुण्डा मंदिर, लमकेश्वर, महादेव मंदिर, रामेश्वर मंदिर, विष्णु मंदिर, गोदीगाड मंदिर के अलावा पाताल भुवनेश्वर, भोलेश्वर, शैलेश्वर, मर्णकेश्वर, लमकेश्वर, हटकेश्वर, चमडुगरा आदि प्रसिद्व शिवालय हैं। बताते हैं कि गंगोलीहाट का काली मंदिर संस्कृति के महाकवि कालीदास की भी तपस्थली रही है। कालिदास के वंशज कौशल्य गोत्र के ब्राह्मण कैलाश यात्रा पथ में रहते हैं। इनके घरों में कालिदास के मेघदूत व रघुवंश की पाण्डुलिपियां मिलती हैं।
भवप्रीता कल्याण रूपा सत्यानंद स्वरूपिणी माता भगवती महाकालिका का यह दरबार अनगिनत, असंख्य अलौकिक दिव्य चमत्कारों से भरा पडा है। जिसका वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व किवदन्ति है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण ;आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहते है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है। हाट गांव के चौधिरयों द्वारा महाकालिका को चढायी गयी २२ नाली खेत में देवी का डोला चलने की बात कही जाती है।
महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का विस्तर लगाया जाता है और प्रातः काल विस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि विस्तर में सलवटें पडी रहती हैं। कुछ बुर्जग बताते हैं पशु बलि महाकाली को नहीं दी जाती है। क्योंकि जगतमाता अपने पुत्रों का बलिदान नही लेती है। यह बलि कालिका के खास गण करतु को प्रदान की जाती है। तामानौली के औघड बाबा भी कालिका के अन्यश् भक्त रहे हैं।माँ काली के प्रति उनके तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते है भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कार व किवदन्तियों से भरा पडा है


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